Tuesday, 5 September 2017

स्त्री

एक स्त्री अगर ठीक वही दिखे जो वह है...तो वह एक सवाल है. एक ऐसा सवाल जिसके जवाब तक सवाल को खुद ही पहुँचना होता है. कोई भी और न उसका जवाब ढूंढ सकता है, न ढूँढना चाहिए ही.
ज़ाहिर है इस जवाब की कोई एक शक्ल भी नहीं होती!
...स्त्री रुपी इस सवाल से समाज द्वारा पूछे जाने वाले सवाल कुछ यूं रहे-
“उम्र क्या है आपकी?”
-“सैतींस साल.” (...और पूछने वाले की नज़रें ठहर जाएँ आप पर, ज्यों आपने कम उम्र बताने के सामाजिक नॉर्म का भयंकर रूप से अतिक्रमण करते हुए अपनी उम्र दस साल ज्यादा ही बता दी हो.)
-“अच्छा! लगतीं नहीं हैं.”
“हाँ, लगती नहीं पर हूँ, पर हूँ इतने की ही.”
“शादीशुदा हैं?”
“जी.”
“सिन्दूर, बिंदी, पायल, बिछुआ...कुछ भी नहीं पहना...कुछ तो पहनना ही चाहिए, शादीशुदा और ग़ैर शादीशुदा होने में फ़र्क तो दिखे”
“हाँ, पर मेरे पति भी ऐसा कुछ नहीं पहनते जिससे उनके शादीशुदा या गैरशादीशुदा होने का फ़र्क दिखे.”
“बच्चे कितने हैं?”
“एक भी नहीं.”
“शादी को कितने साल हो गए?”
“जी, छः साल.”
“अच्छा!!”
“अब तो बच्चा कर लेना चाहिए आपको...(सहानुभूति की एक नज़र के साथ.)”
“हाँ, पर इस बात पर फ़ैसले का हक़ तो विशुद्ध रूप से हमारा है...क्यों?”
“ह्म्म्म...(अपने तरकश के तीर के चुक जाने की मायूसी के साथ)”...
...तो ये सवाल एक बानगी भर हैं...रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में एक महिला जो समाज के खाँचे में फिट नहीं है अपनी उपस्थिति से अपने बेहद नज़दीकियों सहित दूर-दराज के समाज के लिए भी एक सवाल ही है...एक उलझा हुआ सा ऐसा सवाल जो मुसलसल चुभता है कहीं गहरे तक...लिहाज़ा टीस भी गहरी देता है. पर स्त्री बेफ़िक्र है, उसे फ़र्क नहीं पड़ता कि उसकी बेसाख्ता हँसी पर उठ जाने वाली सवालिया निग़ाह, या फिर उसके ड्रेसिंग सेन्स को सराहने से ज़्यादा उसकी उपादेयता पर उठ जाने वाली टेढ़ी नज़र उसे कैसे देखती है? उसके पढ़ने-लिखने सहित खाने-बनाने-खिलाने की तमाम आदतों को भी संशय से देखने वाली दृष्टि या फिर रात के अंधेरों को धता बताते उसके क़दमों की आहट से हिल जाने वाला दंभ (जिसका बड़ा हिस्सा पुरुषों से ज्यादा पुरुषवादी स्त्रियों का हो.) उससे क्या अपेक्षा रखता है? उसे नहीं फ़र्क पड़ता कि उसके पीछे, लोग उसे ‘अच्छी स्त्री’ के तमगे से नवाजते हैं या नहीं...उसे नहीं फ़र्क पड़ता कि उसकी राजनीतिक दृष्टि से उसके आस-पास का समाज सहमत है या नहीं.
...हाँ, उसे फ़र्क पड़ता है...उसे फ़र्क पड़ता है तो सड़ चुकी उन रूढ़िवादी मान्यताओं से जिनसे ज़िन्दगी के हर क़दम पर लड़ने को वह प्रतिबद्ध है...उसे फ़र्क पड़ता है तो उस ईमानदारी से जो उसके एक पत्नी, बेटी, बहन, दोस्त, शिक्षक या फिर एक मनुष्य के बतौर बने रहने के लिए ज़रूरी है. उसे इस बात से ज़रूर फ़र्क पड़ता है कि उसके होने की अर्थवत्ता इस समाज की ख़ुशी के लिए तमाम जायज़-नाजायज़ नियमों को मान लेना भर नहीं है...तभी तो उसके होने को इस समाज के परम्परागत नियमों के लिए चुनौती बन जाना कहीं पसंद है.
...तो वह हँसेगी, इस बात से बेपरवाह कि उसकी हँसी के मायने तलाशने में दुनिया कितना प्रयत्न करती है? ...वो रोएगी, जब-जब टूटेगी...बिना इस बात की परवाह के कि उसे कमज़ोर होने का तमगा न मिल जाय समाज से...और हर बार जब वो गिरेगी, तो किसी के आने के इंतज़ार के बगैर खुद की कोशिशों से उठेगी...फिर से खड़ी होगी...वह टूट कर प्यार करेगी, और इस प्यार का इज़हार करेगी...बिना इस बात की परवाह के कि बकौल समाज उसमें ‘स्त्रीयोचित गुणों’ का अभाव है. क्योंकि सैतींस साल की इस ज़िन्दगी ने उसे यही सिखाया है कि जो तुम्हें दिल से सही लगे वही करो और वही दिखो...इस करने और दिखने का मूल्य बहुत बहुत ज्यादा है...ये रास्ते तकलीफ़देह हैं...लेकिन सुकून भी इसी रास्ते पर है. सच को सच कहना सिर्फ इसलिए बंद मत कर दो कि झूठ तारी है समाज पर...समय पर. क्योंकि अँधेरा कितना भी घना क्यों न हो रौशनी की एक छोटी सी किरण भी उसके तिलिस्म को तोड़ने का एक मजबूत ज़रिया होती है.

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