Monday, 8 January 2018

हमारे देश में जाति व्यवस्था

हमारा भारतवर्ष एक लोकतांत्रिक देश है, मतलब की यहां की जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है. हमारे  समाज की सबसे बड़ी  कमजोरी यहां की जाति व्यवस्था है. क्योंकि अगर समाज में जाती रहेगी तो उसका असर हमारे दैनिक जीवन पर जरुर देखेगा उसको कोई रोक नहीं सकता है और हमारे यहां के राजनेता भी इसी व्यवस्था का लाभ उठाते हैं और उनको हमेशा जाति व्यवस्था में  फसाए रहना चाहते हैं. इस सत्य को हमें कड़वे घूंट के रूप में पी लेना होगा कि जाति व्यवस्था को इस समाज से खत्म करना ही होगा क्योंकि इससे कभी फायदा नहीं हुआ है हमेशा इससे समाज में दरार ही पैदा हुई है.
‎ इतिहास इस बात का साक्षी है, अभी हाल ही में हरियाणा में जाट आंदोलन, राजस्थान में गुर्जर, गुजरात में पटेल आंदोलन, राजस्थान में पद्मावती के विरोध में राजपूत लोगों का पूरे देश में विरोध, कर्नाटक में लिंगायत लोगो का विरोध.
‎आज के आंदोलन से केवल राजनेताओं को ही फायदा हुआ है इससे समाज में बंटवारा बहुत बढ़ गया है.
‎ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15  मैं यह उल्लेख किया गया है कि
‎"धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध"
‎ कब तक यह भेदभाव चलता रहेगा,
‎कब तक यह जातिवाद जातिगत दंगे होते रहेंगे,
‎कब तक नेता लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए जाति का सहारा लेंगे
‎और कब तक यह वोटों की राजनीति जाति से तय होगी
‎हमारे यहां जाति व्यवस्था जाति का कीड़ा बहुत अंदर तक घुस चुका है उसको खत्म करना ही होगा नहीं तो पूरे देश को खोखला कर देगा. अगर हमारे देश में जाति व्यवस्था को ही खत्म कर दिया जाए तो सारी समस्याएं हल हो जाएगी, कोई जाति नहीं रहेगी ना ही कोई जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करेगा. केवल धर्म रहेगा और उसी धर्म में हम लोग रहेंगे, क्योंकि जब तक जाती रहेगी तब तक सामाजिक सद्भावना लाना नामुमकिन है.

Wednesday, 3 January 2018

सुनो ना,
‎चलना कभी साथ में अस्सी घाट
‎वहां बैठकर करेंगे दिल की बात
‎और जलक्रीड़ा  करते हुए तुम्हें
‎"मोहतरमा" से "प्रियतमा" ना बनाया तो
‎"राहुल" मेरा नाम नहीं
सुनो....
एक पौधा लगाउँगा
तेरे नाम का
अपने आँगन में
सूरज की लालिमा
आयेगी तेरे ऊपर से होते हुए
मेरे आँगन में

Tuesday, 2 January 2018

कल तेरे शहर से

कल तेरे शहर से क्या गुजरा
मुझे तुम्हारी बहुत याद आई
धुंध में डूबे शहरों की
सूनसान गलियां
बंद किवाड़ वाले दरवाज़े
और घरों की छतों पर
गीला कपड़ो के सिवाय कुछ नहीं
दुपहरी की छुपी छुपा धूप
हर बार तेरी याद दिलाते रहे
धान के खेत की ये हरियाली
मानो तेरे इंतजार मे हो
एक अजीब सा सन्नाटा
पसरा है मेरे गाँव मे
मैं अपना गाँव छोडकर आया
तेरे बनारस शहर मे
तेरे से कब मेरा हो गया
पता ही नही चला
याद है वो पल
अस्सीघाट की सीढ़ियो
पर जब हम तुम बैठे थे
एक खंडहर का
गुंबद था मेरे सामने
गंगा जी बह रही थी खंडहर के बाजू से
हमेशा की तरह ख़ामोश थे तुम
रेंगती हुई नाव मानो
दुखों का एक सिलसिला थी
और तुम चले गये
शाम बुझ रही थी और
लौटना की कोई आहट नहीं थी कहीं....