Saturday, 30 March 2019

हम, 21वीँ सदी और ये रिश्ते

इस आर्टिकल को पढ़ने से पहले आपको दो वादा करना पड़ेगा.....
1. ख़ुद को ख़ुश रखने के लिए, या  अपनी मानसिक शांति बनाए रखने के लिए आप हमेशा वो लम्हा याद करेंगे जब आप बेहद खुश थे!
2. आज से आप खुद को कभी धोखा नही देंगे, खुद से कभी झूठ नही बोलेंगे!


चलिए चल पड़ते हैं जिन्दगी के सफर मे,
निकल पड़ते हैं हम एक जिन्दा लाश की तरह...!

हम लोग अक्सर ये बातें करते हैं कि मेरी उसकी नही बनती, हम दोनों के सोच मे जमीं आसमाँ का अंतर है! लेकिन क्या होगा अगर ये जिन्दगी मे सबकुछ परफेक्ट हो जाए, मतलब जो हम सोचे वही हो, तो ब्रदर जीने का मजा ही बिखर जायेगा! ये जिन्दगी बोरिंग सी हो जाएगी! ठीक वैसे जैसे आपके पसंदीदा रसगुल्ला को आप रोज हर समय खा रहे हैं!  ये जो दरारें व कमियां होती हैं ना, वाकई यही हमारी जिन्दगी की खूबसूरती है! यही हमारे जीने की वजह है, यही हमे बेहतर ख्वाब दिखलाती है!
इसलिए कभी कभी अगर फालतू की नौटंकी भी हो जाए तो नाराज नही होते! ऐसे ही कुछ दरारों को भरने के लिए हमारी ज़िंदग़ी मे कुछ रिश्ते बिना प्रयास के अपने आप बन जाते हैं! ऐसे रिश्तों से हम खुद ब खुद एक जुड़ाव सा महसूस करते हैं! ऐसे रिश्तों को बयान नहीं किया जा सकता, बस उनकी गर्माहट महसूस की जा सकती है! अगर कभी इनको परिभाषित करने की कोशिश भी की जाती है, तो हम ख़ुद को ही शर्मिंदा कर जाते हैं!
हम ऐसे लोगों से मिलकर सुकून महसूस करने लगते हैं, खुलकर मुस्कुराना चाहते हैं, अपने दिल की हर बात कह जाते हैं! ये रिश्ता किसी से भी हो सकता है, किसी दोस्त से, माँ-बाप से, भाई-बहन से, या फिर किसी अजनबी से भी!
कभी-कभी, हर रिश्ते की तरह ये रिश्ता भी एकतरफ़ा होता है! सिर्फ़ आपके दिलोदिमाग़ में बनाया हुआ! इसमें सुकून सिर्फ़ आपको महसूस होता है, क़रीबी सिर्फ़ आप महसूस कर पाते हैं, ये रिश्ता ख़ास भी सिर्फ़ आपको लगता है और कभी-कभी कोई इस तरह के रिश्ते को स्वीकार नहीं करना चाहता! अनजाने में या जानबूझकर! ख़ुद से डरकर, अपने बीते हुए कल से डरकर, अपनी भावनाओं से डरकर!
इस तरह के रिश्तों की बस यही ख़ूबसूरती होती है कि यहाँ सब कुछ अपने आप होता है, सब कुछ सहज होता है, बिना किसी प्रयास, बिना किसी उम्मीद, बिना किसी नाराज़गी व बिना किसी कशिश के!
ऐसे ही रिश्तों को जीवित रखने मे सबसे ज्यादा सहयोग होता है, भरोसा का, विश्वास का!
जब आप किसी अजनबी या अपने पर भरोसा करते हैं, तो उसे अपने व्यक्तित्व का एक हिस्सा दे देते हैं! मतलब अपने जिन्दगी को उस रिश्ते में निवेश कर जाते हैं, उसमें और ख़ुद में कोई फ़र्क़ नही करते हैं! भरोसा करने का मतलब होता है, ये मानना कि किसी भी परिस्थिति में आप उनके लिए जो करेंगे, वो भी आपके लिए ठीक वैसा ही करेंगे!
वक़्त के साथ रिश्ता चाहे आगे बढ़े या वहीं छूट जाए, आपका वो हिस्सा उस इंसान में हमेशा रह जाता है!
चाहे वो इंसान आपका भरोसा तोड़ भी दे, आप उस रिश्ते को अपने प्यार से पोषित करना छोड़ भी दें, लेकिन आपका वो हिस्सा हमेशा उसके अंदर रहता है! उसे ये एहसास दिलाता है कि आपने उस रिश्ते में अपने आपको कितना निवेश किया था! उसे ये याद दिलाता है कि आपके लिए वो इंसान कितनी अहमियत रखता था!
बस इसी वजह से कुछ रिश्ते कभी ख़त्म नहीं होते, दो लोगों के बीच पनपा वो भरोसा कहीं न कहीं हमेशा ज़िंदा रहता है! आपका वो हिस्सा हमेशा ज़िंदा रहता है! वो चाहे जितना भुलाने का प्रयास करे उसके अवचेतन मन मे वो व्यक्तित्व हमेशा के लिए सुरक्षित हो जाता है!
जीवन के इस सफर मे हमे कभी न कभी असफलता का भी मुँह देखना पड़ता है! मनोविज्ञान मे एक सिद्धांत है जिसको अंग्रेजी मे कहते हैं, "Frustration Aggression Theory". जिसके अनुसार असफल व अवसाद की स्थिति मे हम आक्रामक हो जाते हैं और हम अपने आगे सबकुछ नगण्य समझने लगते हैं और "Ego defense mechanism - Displacement" के अनुसार हम असफलता की जिम्मेदारी दूसरों पर मढ़ देते हैं जबकि हम यह जानते हैं कि पूरे जिम्मेदार हम हैं!
दुनिया में सबसे आसान काम होता है, दूसरों पर किसी चीज़ का दोष मढ़ना! ऐसा करने पर न तो ख़ुद को बुरा महसूस होता है और न ही पश्चाताप की भावना दिल को सताती है! कितना अच्छा महसूस होता होगा तब जब कुछ भी बुरा होने का ज़िम्मेदार किसी को ठहराया जा सके और उसे अपने बारे में बुरा महसूस कराया जा सके!
अब आते हैं, सबसे मुश्किल चीज़ पर! वो है, ज़िम्मेदारी उठाना! अपनी गलतियों को स्वीकार करना और उनसे होने वाले नुकसान की भरपाई करके आने वाले कल को बेहतर बनाना! ये ख़ुद को बुरा महसूस कराने के लिए नहीं, बल्कि वक़्त के साथ अपने व्यक्तित्व में सुधार के लिए होता है!
ऐसा करने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए होती है और सब्र भी! ऐसा करने के लिए ख़ुद पर भरोसा होना चाहिए और एक अच्छा इंसान बनने की मंशा भी!

कहते हैं कि कुछ ज़ख़्म कभी नहीं भरते! मुझे लगता है कि कुछ ज़ख़्म ऐसे होते हैं, जिनका दर्द हम ज़िंदग़ी भर सहना चाहते हैं! ऐसे ज़ख़्मों को हम ठीक उसी तरह संजोकर रखना चाहते हैं, जिस तरह हम उस इंसान की यादों को संजोकर रखते हैं, जिसने हमें वो दर्द दिया है!
ये सच है कि कुछ चीज़ों से उभरना मुश्क़िल होता है, लेकिन कभी-कभी हम उभरने की कोशिश तक नहीं करते और अपनी ज़िंदग़ी को कोसते जाते हैं और कभी-कभी बस उस ज़ख़्म को सहने की आदत को छोड़ नहीं पाते!
ज़िंदग़ी में कुछ इंसानों को अहमियत देना अच्छा है और ज़रूरी भी, लेकिन ये समझना भी ज़रूरी है कि हर इंसान का हमारी ज़िंदग़ी में एक हिस्सा होता है! जिसके हिस्से में ज़्यादा वक़्त आया, वो ज़्यादा देर तक ठहरता है, और जिसके हिस्से में कम आया, वो वक़्त देखकर निकल जाता है!
हाँ, ज़िंदग़ी आसान नहीं है और हमारे रिश्ते भी कम उलझन भरे नहीं है, लेकिन उन्हें सुलझाने का काम हमारा ही है और ज़िंदग़ी को आसान बनाने का भी!
ये हमारी मानसिक शांति के लिए ज़रूरी है और हमारी फ़िक़्र करने वाले लोगों के लिए भी!

जिंदगी विविधताओं से भरी पड़ी है! अत: ज़िंदग़ी से शिकायत सबको होनी चाहिए! मुझे इसमें कुछ ग़लत नज़र नहीं आता, जिससे हम प्यार करते हैं, नाराज़गी भी तो उसी से हो पाती है और फिर, हर चीज़ की तरह ज़िंदग़ी की भी अपनी ख़ामियाँ और ख़ूबियाँ हैं!
ख़ामियों की बात करें, तो हर चीज़ और हर इंसान की तरह ये भी कभी न कभी आपको छोड़कर चली जाती है! इसका सिखाने का अंदाज़ थोड़ा सा जुदा है! ये आपको कड़वे अनुभव देती है और उनसे आपको मज़बूत रहना सिखाती है! ये गाहे-बगाहे आपसे नाराज़ भी हो जाती है और अगर आप इसकी क़द्र नहीं करते, तो ये भी आपकी क़द्र करना छोड़ देती है!
ख़ूबियों में सबसे प्यारी बात ये है कि ये हमें हमारे वजूद का एहसास कराती है! हमारा अस्तित्व क्या है इसका आभास कराती रहती हैं! वक़्त-वक़्त पर हमें बताती रहती है कि आपके लिए अपने आपसे ज़रूरी और कुछ नहीं होना चाहिए! ये हमें लोगों से मिलाती है, उनसे रिश्ते बनाना, प्यार करना सिखाती है! ये हमें सिखाती है कि जो भी हो जाए हमें बस अपना काम करते रहना है, जैसे ये बेनागा चलती रहती है, बेफ़िक्र सी!
तो कभी-कभी ज़िंदग़ी से नाराज़ होना ठीक है! नाराज़ तो हम ख़ुद से भी हो जाते हैं! ज़रूरी बात ये है कि ज़िंदग़ी के लिए और अपने आप के लिए प्यार बरकरार रहे! तभी ज़िंदग़ी आपकी क़द्र करेगी और आप ख़ुद अपने आप की भी प्यार कर सकेंगे!
करीब हर इंसान किसी भी बात को अपने नज़रिये से देखना पसंद करता है! हर इंसान को यही लगता है कि किसी भी चीज़ के बारे में जो वो सोच रहा है, वो ही ठीक है! ऐसा इसलिए है क्योंकि हम किसी भी और से ज़्यादा अपने आप पर, अपनी सोच पर विश्वास करते हैं!
ख़ुद पर विश्वास होना अच्छा है, लेकिन ऐसा करते हुए दूसरे व्यक्ति की सोच को ही नकार देना अजीब है! ख़ुद को ऊपर रखते-रखते और दूसरे को ग़लत साबित करते-करते हम ये एहसास ही नहीं कर पाते कि किस तरह धीरे-धीरे हम अपने सबसे क़रीबी लोगों को दूर कर देते हैं! शायद हमारे अंदर अहम की भावना आ रही होती है!
जब हम किसी से पहली बार मिलते हैं, तो उसके बारे में सब कुछ जान लेना चाहते हैं और उसकी सोच को तवज्जो देते हैं! ये सब शायद हम उसके व्यक्तित्व को खोलने के लिए और उसके क़रीब आने के लिए करते हैं!
मज़े की बात ये है कि जब वो व्यक्ति हमें अपना क़रीबी महसूस करके हमें दिल से अपनी बात कहना शुरू करता है, तो हम उसकी सोच को, उसके व्यक्तित्व को तवज्जो देना कम कर देते हैं! अब हमें ये डर लगने लगता है कि हमारे व्यक्तित्व में हमसे ज़्यादा उसका व्यक्तित्व न भारी हो जाए और हम उसे नकारना शुरू कर देते हैं और इग्नोर मारते है!
धीरे-धीरे हम फिर से अजनबियों से हो जाते हैं और ये प्रक्रिया बार-बार और अमूमन दोहराई जाती है। इसे रोकने का कोई तरीका मैं आज तक समझ नहीं पाया हूँ! अपने मम्मी पापा से बात किया व कई सारी किताबें पढ़ी और आज मनोविज्ञान पढ़ रहा हूँ लेकिन मुझे इसका जवाब नही मिला! अपने व्यक्तित्व को बचाने के फेर में हम दूसरों के व्यक्तित्व से खेल जाते हैं और अफ़सोस की बात ये है कि इसे ग़लत भी नहीं ठहराया जा सकता!
आख़िर, अपने आप को बचाने का हक़ तो हर इंसान को है!

हम जीवन मे कितने भी बड़े हो जाएँ, लेकिन अपने क़रीबी लोगों से ठीक उसी तरह रूठ जाते हैं, जैसे बचपन में अपने माता-पिता से रूठ जाते थे और मनचाही चीज़ मिल जाने पर उसी तरह खिलखिलाते हैं, जैसे बचपन में खिलखिलाते थे!
हम जितने मर्ज़ी बड़े हो जाएँ, लेकिन सपने देखना नहीं छोड़ते! ख़ुद को आगे और बेहतर देखने की ख़्वाहिश ख़त्म नहीं होती! बस हाँ, सपने बदल जाते हैं और ख़्वाहिशें बदल जाती हैं!
तो ज़रूरत बस इतनी है कि अपने अंदर छिपे इस बच्चे को पहचाना जाए और उसे खुलकर बाहर आने की आज़ादी दी जाए! ऐसा करने से जो ख़ुशी मिलेगी, वो शायद दुनिया की और कोई चीज़ नहीं दे पाएगी!


©Rahul_Pal

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