Thursday, 9 August 2018

दूरियां कभी दायरा नहीं बढ़ाती,
हाँ, समय जरूर दोहराता है,
लेकिन नहीं आती हैं वापस,
बचपन की वो नादानियां.....
हॉस्टल की जिंदगी है,
कहीं एकांत छुटपुट है तो,
कहीं जी भरके शोर,
परिसर के इस विशाल महल में,
यूं तो जिंदगी नहीं होती बोर....
लेकिन मम्मी व बापू की यादें,
जब दिल चीरने लगती हैं,
तब मेरा दिल खोजने लगता है,
पापा के बाजार से घर आते ही,
झोले टटोलने लगता है....
हॉस्टल मेस की मटर पनीर भी,
माँ की हथपुइया रोटी के सामने क्या है,
पास पड़ोस की मुंह बोली चाची,
दादी मामी व मझली काकी,
इनके सामने मेरे आधुनिक दोस्त क्या हैं....
कुछ अपने जो बचपन में,
सबसे अच्छे दोस्त हुआ करते थे,
जात पात से दूर हटकर,
दिल से अपने हुआ करते थे....
उन दिनों जब  भारी बीमारी,
मां के फूँक से उड़नछू हो जाये,
वहीं आज मामूली चोट पर,
स्टूडेंट हेल्थ सेंटर नजर आये....
नाच नौटंकी व ढोल मदीरे,
जहाँ मौज मस्ती संग धूम मचाएं,
अब मॉल कैफे व रेस्तरां संग,
मौज मस्ती में याद लंका आये....
पौ फटते ही घूमा करते थे जब,
गाँवो के गलियारों में,
अब देर रात तक बतियाते हैं,
होस्टल के कैदखानो में....
दिन बीत जाते हैं,
बंद मुट्ठी से गिरते रेत की तरह,
चेहरे पर झुर्रियां लिए,
माँ टकटकी लगाए आज भी,
बंद किवाड़ो से राह तकती रहती हैं,
बाहर पढ़ने गये अपने लाल के,
सलामती की दुआ करती रहती हैं....
दूरियां कभी दायरा नहीं बढ़ाती,
समय जरूर दोहराता है,
लेकिन नहीं आती हैं वापस वो,
बचपन की वो नादानियां.....


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